डॉ भीमराव आंबेडकर जीवनी
डॉ भीमराव आंबेडकर जीवनी सन 1891 में भारत की धरती पर एक ऐसे विलक्षण महान व्यक्ति का जन्म हुआ| जो दलित के मुक्तिदाता उदारक और शक्तिशाली नेता साबित हुए| वे एक महान लेखक, नरी जाति को सशक्त बनाने वाले सिद्धांत शास्त्री और बौद्ध धर्म के मानवीय सिद्धांतों के पुनरुद्धारक थे| उन्होंने मानव अधिकारों को भारतीय समाज में स्थापित किया और मानवीय सामान्य की बात की वह भारतीय मनीषा और धर्म के गहन विचारक शिक्षा न्याय और अर्थ के प्रसिद्ध विद्वान थे| वे बौद्धिक प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे उन्होंने छुआछूत और भेदभाव की समस्या को भारतीय समाज से उखाड़ फेंकने का बीड़ा उठाया| महात्मा गांधी के साथ विदेश की आजादी की लड़ाई में कंधे से कंधा मिलकर चले| बचपन से लेकर सी की नौकरी में बड़ा पद अपने तक उन्होंने छुआछूत और भेदभाव की असहनीय पीड़ा सही और कसम खाई की वे हिंदुस्तान से भेदभाव की खाई और छुआछूत के कलंक को मित कर रहेंगे और सैकड़ो वर्षों से अपमान और तिरस्कार सते ए रहे दलित को शिक्षा न्याय सामान्य और सम्मान का अधिकार दिल कर रहेंगे|
मुक्तिदाता ने महसूस किया की जब तक देश के संविधान और कानून में दलित के लिए न्याय सामान्य और उन्नति के प्रावधान नहीं किया जाएंगे तब तक दलित अपनी स्थिति से कभी ऊपर नहीं उठ पाएंगे| उसे मसीहा ने महसूस किया की शिक्षा ही वह ताकतवर हथियार है जो प्रत्येक दलित को सशक्त बना शक्ति है और उसे अपने मानवीय अधिकार समाज के लोगों वी जाति के ठेकेदारों से वापस दिल शक्ति है इसीलिए पहले उसे असीम क्षमता के धनी व्यक्ति ने अपने आप को शिक्षा और ज्ञान से भरपूर बनाया| उसके बाद दलित को सामान्य न्याय और अधिकार दिलाने के पक्ष में सशक्त आवाज उठाई| एक गरीब और अपेक्षित वर्ग से उठा वह साधारण इंसान एक दिन देश के लाखों करोड़ दलित के दिल की धड़कन और उनका मसीहा बन गया| जी हां दोस्तों आज हम बात कर रहे हैं बाबा साहब आंबेडकर की जिन्हें डॉक्टर भीमराव अंबेडकर कहा जाता है|
एक अनोखी कहानी :-
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स्कूल में दाखिला/ डॉ भीमराव आंबेडकर जीवनी
वह भारतीय संविधान के निर्माता थे| स्वतंत्र भारत के वे पहले कानून मंत्री बनाए गए| भारतीय संविधान के निर्माण के बाद उन्होंने हिंदू कोड बिल भी बनाया था| डॉक्टर अंबेडकर का जन्म आज से 133 साल पहले उसे कालखंड में हुआ था जब हमारा भारत देश अंग्रेजन का गुलाम था| तथा हमारे देश के लोग ब्रिटिश साम्राज्यवाद की पीड़ा भूगत रहे थे तब अंग्रेज लोग तो भारतीयों पर जुल्म करते ही थे लेकिन भारत के ऊंची जाति के स्वर्ण लोग अछूत या निम्न वर्ण के लोगों को घृणा की दृष्टि से देखते थे| अछूत जनों को वे अपने केन और नल से पानी भी नहीं लेने देते थे और उन्हें चुन बहुत बड़ा पाप समझते थे| होला में छुआछूत और असमानता के ऐसे युग में मध्य प्रदेश के महू नमक स्थान में एक ऐसे महामानव का जन्म हुआ जो दलित वर्ग के लिए मुक्तिदाता साबित हुआ और उनके महान कार्यों के करण दलित समाज के लोग उन्हें भगवान मानकर पूजने लगे उसे महापुरुष का नाम डॉक्टर भीमराव अंबेडकर था| अंबेडकर 14 अप्रैल 1891 को पैदा हुए थे| वह अपने माता-पिता की 14 वीं संतान थे लेकिन उनके अधिकांश भाई बहन कुछ समय तक जीने के बाद पर लोग सिद्धार्थ गए थे| उनके पिता का नाम रामजी राव और मां का नाम भीमा बाई था दोस्तों भीमराव के पिता खाने को तो मिलिट्री में सूबेदार थे लेकिन उन्हें वेतन बहुत ही कम मिलता था 15 साल सी में नौकरी करके जब वो रिटायर हुए तो अपने गांव महुआ यह पिता रामजी राव के मन में अपने बच्चों परवरिश और पढ़ाई लिखीई की चिंता थी लेकिन इसके लिए उनके पास पर्याप्त नही पैसा था| गांव में बच्चों के लिए स्कूल की सुविधा थी आखिरकार रामजी राव ने अपना गांव छोड़कर सतारा शहर जान का निर्णय लिया ताकि वह शहर में आजीविका का कोई कार्य या नौकरी कर सकें और अपने तीनों पुत्रों को किसी अच्छे स्कूल में दाखिला करके उनका भविष्य सांभर सके| भीमराव के पिता जानते थे की हम बाहर जाति से हैं और हमारी जाति के लोगों को देश में अछूत माना जाता है यदि मेरे पुत्रों ने शिक्षा ग्रहण नहीं की तो उन्हें आगे चलकर भूख गरीबी और कष्ट का सामना करना पड़ेगा| अगर वे कुछ पढ़ लिख गए तो हो सकता है की किसी दफ्तर में बाबू बन जाए और इज्जत से जीना सिख जाए|
डॉ भीमराव आंबेडकर जीवनी
बड़ी मुश्किल से सतारा शहर में रामजी राव को एक कंपनी में स्टोर कीपर की नौकरी मिली पगार 40 रुपए थी| सूबेदारी की नौकरी में रामजी राव को 50000 रुपए महीना वेतन मिलता था लेकिन घर की तंग हालात के करण ने वो नौकरी करना स्वीकार कर लिया|अपने परिवार के साथ सतारा शहर में रहते हुए भीमराव जब 5 वर्ष की आयु के हुए तो उन्होंने अपने पिता से पढ़ने की इच्छा जाहिर की, उनकी माता जी भी चाहती थी वे बड़े पिता रामजी राव भी अपने बेटों को स्कूल में पधाना चाहते थे लेकिन वे यह सोचकर की हम माहार लोग हैं, अछूत जाति के हैं शहर में कौन सा स्कूल हमारे बच्चों को दाखिला दे सकेगा| बालक भीमराव रोज पिता से स्कूल जाने की ज़िद करते थे हार कर उनके पिता उन्हें शहर के कुछ स्कूलों में लेकर भी गए लेकिन सब स्कूलों के संचालक और हेड मास्टरों ने उनके बेटे भीमराव को अपनी शाला में प्रवेश देने से माना कर दिया| एक दिन एक स्कूल का हेड मास्टर बालक भीमराव को अपनी शाला में प्रवेश देने के लिए राजी हो गया लेकिन उसने शर्त रखी की भीम को स्कूल में कक्षा के दरवाजे से बाहर बैठकर अपनी पढ़ाई करनी होगी| अपने बेटे को शिक्षा दिलाने के लिए रामजी राव ने यह शर्त भी स्वीकार कर ली| इस तरह भीमराव का दाखिला स्कूल में हो गया|
अपने पिता की तरह वह बहुत गंभीर और सहनशील थे| साथ ही साथ बहुत कुशाग्र बुद्धि तथा मेधावी प्रतिभा के धनी थे| कक्षा के दरवाजे से बाहर वे उसे जगह पर अपना ताट बीच्याकर बैठने थे जहां छात्र अपने चप्पल और जूते उतारने थे लेकिन बालक भीम को किसी से कोई शिकायत नहीं थी| उसके मन में केवल विद्या और ज्ञान अर्जित करने की लगन थी वे पढ़ाई के जारी दिन दुनिया की बहुत साड़ी बातें जान लेना चाहते थे| भीमराव और रोज सुबह समय से पहले स्कूल पहुंचने और अपनी कक्षा के बाहर दरवाजे पर बैठकर शिक्षकों द्वारा पढ़ाया जान वाले पाठों को बड़े ध्यान से एकाग्रतापूर्वक सुना करते थे| टीचर के पाठ पढ़ते पढ़ते उन्हें वह पाठ स्कूल में ही याद हो जाता था उन्हें घर पर अलग से उसे पाठ को रेट कर याद करने की आवश्यकता नहीं पड़ती थी| टीचर उनसे पाठ के संबंध में जो जो सवाल पूछते उसका भीमराव एकदम सही सही जवाब दे दिया करते थे| एक दिन गणित अध्यापक ने एक प्रश्न ब्लैक बोर्ड पर लिखा और भीमराव को उसे हाल करने के लिए बुलाया भीमराव बड़े गर्व के साथ उठकर कक्षा के भीतर दाखिल हुए और जैसे ही ब्लैक बोर्ड की और बढ़ कक्षा के सभी बच्चे चिल्लाकर केहने लगे ‘मास्टर जी भीमराव अछूत है, ब्लैक बोर्ड के पास हमारे खाने के टिफिन रखें हुए हैं इसकी परछाई से हमारे टिफिन का खाना अपवित्र हो जाएगा’ भीमराव ब्लैक बोर्ड के पास नहीं पहुंच सके और छात्रों के आक्रोश के समक्ष झुकते हुए अध्यापक ने भीमराव को वापस अपनी जगह जाकर बैठने को कहा| इस तरह के कई अपमान और तिरस्कार भीमराव ने सहे|
डॉ भीमराव आंबेडकर जीवनी
डॉ बाबासाहेब आंबेडकर यांचे कार्य/ डॉ भीमराव आंबेडकर जीवनी
दलित को भारतीय समाज में सामान्य का अधिकार और न्याय दिलाने के संघर्ष शक्ति प्रधान की भीमराव ने स्कूल में एक-एक करके कर कक्षाएं अच्छे नंबरों से पास की और वे पांचवी कक्षा में गए| एक दिन उनकी मां कठिन बीमारी का शिकार हो गई| पति ने भीम बाई का पड़ोसी वैद्य से इलाज कराया लेकिन भीम बाई को बचाया नहीं जा सका| स्कूल में भीमराव गणित और भूगोल आदि विषयों में बहुत होशियार थे| उनके मन में संस्कृत पढ़ने की इच्छा थी लेकिन संस्कृत के अध्यापक ने उन्हें संस्कृत पढ़ना से माना कर दिया|उसने भीमराव से कहा तू संस्कृत ऊंची जाति के बच्चों के पढ़ने की चीज है बेटा, संस्कृत पढ़ना तेरे भाग्य में नहीं| भीमराव हर कक्षा प्रथम श्रेणी के अंको से पास करते गए अब उन्हें हाय स्कूल की शिक्षा ग्रहण करने के लिए बड़े स्कूल में भारती होना था लेकिन पिता रामजी राव के पास उनकी फीस जमा करने के तब उनके पिता ने पीतल की अपनी पुरानी पर रात को एक सेठ के यहां गिरवी रखकर फीस के रुपयो का प्रबंध किया| इस तरह हाय स्कूल में भीमराव का दाखिला हो गया| हाय स्कूल की परीक्षा उन्होंने प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की|भीमराव अंबेडकर आगे पढ़ना चाहते थे वे कॉलेज में दाखिला लेना चाहते थे लेकिन कॉलेज की फीस भरने के लिए घर में पैसे नहीं थे| ऐसे में बडौदा के महाराज सयाजीराव गायकवाड ने उनकी सहायता की| भीम राव को अपने एक मित्र से पता चला की बडौदा रियासत के महाराज गरीब छात्रों की मदद करते हें|मदद मांगने महाराज की मुंबई स्थित कोठी पर गए जब महाराज को पता चला की भीमराव ने गरीब छात्र होकर भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हाय स्कूल किया है तो वे भीमराव की सहायता करने के लिए तैयार हो गए| भीमराव ने मन में ठान लिया था की मुझे पढ़ाई में ऊंची से ऊंची डिग्री प्राप्त कर शिक्षा में महारत हासिल करनी है| नरेश ने भीमराव की सहायता के लिए उन्हें तुरंत ₹100 दिए और हर महीने 25 रुपए की छात्रवृत्ति देने का वायदा किया| इस तरह महाराज की सहायता से भीमराव ने बंबई के कॉलेज में एडमिशन ले लिया| उन्होंने मुंबई कॉलेज से अच्छे अंकों से बा.ए की परीक्षा पास की| रमाबाई के साथ उनका विवाह हुआ और बेटे को तरक्की करते देख एक दिन भीमराव के पिता ने बड़े गर्व के साथ अपने जीवन की अंतिम सांस ली| बी.ए करने के बाद भीमराव फौजी में लेफ्टिनेंट हो गए थे लेकिन वे विदेश जाकर उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहते थे इसलिए उन्होंने अपनी फौजी की नौकरी से त्यागपत्र दे दिया और बडौदा महाराज की आर्थिक मदद से उच्च शिक्षा प्राप्त करने अमेरिका चले गए और वहां की कोलंबिया यूनिवर्सिटी में दाखिला ले लिया|
वह भीमराव ने पॉलीटिकल साइंस, हिस्ट्री, सोशियोलॉजी और इकोनॉमिक्स का गहरा अध्ययन किया| ये सभी विषय उनकी कक्षा के थे| भीमराव को देश अमेरिका इस मेन में पसंद आया क्योंकि वहां सभी लोग आजाद खयालों वाले और तरक्की पसंद थे| छुआछूत और भेदभाव की संकीर्ण विचारधारा ये वहां के लोगों के मन में नहीं थी| अमेरिका की यूनिवर्सिटी से अच्छे अंकों से M.A करने के बाद भीमराव ने पढ़ना नहीं छोडी| वह अमेरिका से लंदन चले गए और वहां के लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में दाखिला ले लिया इस कॉलेज से एमएससी करने के बाद low की पढ़ाई की कानून की डिग्री अपने के बाद उन्होंने लंदन से डॉक्टरेट की| अपने मूल विषय पर रुपयो की समस्या पर थीसिस लिखी यह वही किताब थी जिसके आधार पर आगे चलकर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया को बनाया गया| प्रथम श्रेणी में लंदन से कानून की डिग्री लेकर और डॉक्टर की उपाधि पाने के बाद भीमराव वापस अपने देश भारत चले आए और महाराज गायकवाड से किया अपने वाइदे के मुताबिक बडौदा में सेना के ऊंचे पद पर नौकरी करने लगे| भले ही भीमराव आंबेडकर ने अमेरिका और इंग्लैंड से ऊंची शिक्षा की बड़ी-बड़ी डिग्रियां हासिल कर ली थी और उन्हें डॉक्टरेट की उपाधि मिल चुकी थी लेकिन अछूत जाति का होने के करण स्वर्ण आज भी उनसे नफरत करते थे| बडौदा रियासत में सेना का ऊंचा अधिकारी बन जान के बाद भी भीमराव ने देखा की दफ्तर के लोग मुझे नफरत करते हैं, कोई मुझे हाथ नहीं मिलन चाहता, चपरासी भी मुझे पानी पिलानेसे कतराता है| ये बात सच थी! सेना के महक में अन्य कर्मचारी की बात तो छोड़िए एक फोर्थ क्लास चपरासी तक भीमराव से अत्यंत घृणा करता था| वह दफ्तर की फाइल उनके हाथ में देने की बजाय दूर से मेज पर फेक कर चला जाता था उसे समय भीमराव अंबेडकर का हृदय भीतर से रोता था| मैं सोचते की मेरे इतने पढ़ाई लिखी करने के बाद भी आखिर क्या हुआ मैंने सोचा था की मेरे पढ़ लिख जान से लोग मुझे इज्जत देंगे, मेरे भाव और विचारों को समझेंगे, लेकिन इतनी साड़ी डिग्रियां अपने का कोई लाभ नहीं हुआ| देश के ऊंची जाति के लोग आज भी मुझे इस नजर से देखते हैं जींस नजर वे मुझे पहले बचपन में देखा करते थे|
आज भी भीमराव को दफ्तर के बाकी लोगों के साथ बैठने उठने पर उनके संग खाना खाने तथा कुवे से पानी लेने पर पाबंदी थी| वे ऑन फिस के मटके से पानी नहीं पी सकते थे अपना पानी उन्हें स्वयं अपने घर से लेकर आना पड़ता था| इस तरह से छुआछूत की पीड़ा सेहते हुए डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने अपने पिता की तरह जिंदगी के अनेक दर्द, कष्ट से उनकी धर्म पत्नी रमाबाई ने एक के बाद एक पांच संतानों को जन्म दिया लेकिन इलाज की सुविधा ना मिलने के करण कर संताने एक-एक करके मृत्यु को प्राप्त हुई| मां रमाबाई की तबीयत भी अब खराब रहने लगी थी| लंबी बीमारी का कष्ट झेलते हुए उन्हें भी अपनी जान से हाथ धोना पड़ा| अब भीमराव संसार में अपने बेटे के साथ अकेले र गए, उनके बेटे का नाम यशवंतराव था| छुआछूत और भेदभाव की बीमारी ने बाबा साहब के दिलों दिमाग पर गहरी चोट की उनके स्वाभिमान को समाप्त करना चाहा, पत्नी और बच्चों के निधन ने भी भीमराव को भयंकर मानसिक आघात पहुंचा| बाबा साहब के स्थान पर यदि कोई और होता तो इतना सब सहकार टूट जाता| संघर्ष और देश सेवा का रास्ता छोड़कर अपने आप तक सीमित हो जाता| बाबा साहब ने हारणा और रुकना नहीं सिखा था| बचपन से लेकर अब तक वे अपनी कठिन मेहनत और लगन से कामयाबी पाते आए थे| जीवन के दुख दर्द अपनों से बिछड़ने का कष्ट सहकार भी उन्होंने देश की सेवा करने का रास्ता नहीं छोडा| वह गांधी जी के सत्य और अहिंसा के सिद्धांत से प्रेरणा लेकर सत्याग्रह के रास्ते पर चल पड़े, ये सत्याग्रह उन्होंने दलित को सामान्य और न्याय दिलाने के लिए किया| सन 1926 में सत्याग्रह अपनाते हुए उन्होंने प्राण किया की ‘मैं सब दलित को गांव के तालाब और कुओ से पानी पीने का और मंदिर में प्रवेश कर भगवान के दर्शन करने का अधिकार दिलाकर रहूंगा’|डॉ भीमराव आंबेडकर जीवनी
डॉ भीमराव आंबेडकर जीवनी
एक दिन गांव के सैकड़ो दलित को साथ लेकर उन्होंने जोरदार तालाब से पानी पिया और सबके साथ वीरेश्वर मंदिर में प्रवेश करके भगवान की मूर्ति के दर्शन किया| गांव के स्वर्ण लोग उनका रास्ता रोकने के लिए आगे आए लेकिन दलित जनों की एकता व संगठन की मजबूती देखकर उन्होंने अपने पैर पीछे हटा लिए| ये सब बाबा साहब के निडरता बहादुर और दृढ़ निश्चय के कारण ही संभव हो पाया था| इसके बाद बाबा साहब ने कम्युनिकेशन की मांग कर दी भीमराव चाहते थे की हमारी दलित कम्युनिटी के आधार पर हमें मतदान का अधिकार मिले| गांधी जी ने भीमराव की इस बात का विरोध किया| गांधी जी सर्व धर्म संभव में विश्वास करते थे उनका कहना था की लोगों को धर्म और जाति के आधार पर किसी भी प्रकार से बंटा नहीं जाना चाहिए| लंदन में जब दूसरा गोलमेज सम्मेलन हुआ तो भीमराव सम्मेलन में भाग लेने गए उन्होंने पहले गोलमेज सम्मेलन में भी ब्रिटेन के किंग जॉर्ज पंचम के सामने अछूतों की समस्या की बात उठाई थी| दूसरे गोलमेज सम्मेलन में बाबा साहब ने पुरजोर तरीके से किंग जॉर्ज पंचम से आग्रह किया की, अछूतों के लिए निर्वाचन क्षेत्र अलग होना चाहिए| गांधी जी ने उनकी बात पर आपत्ती प्रकट करते हुए कहा मैं अलग निर्वाचन क्षेत्र की तुम्हारी बात माने के लिए तैयार नहीं हूं,’अंबेडकर तुम कहते हो की तुम यहां अछूतों का प्रतिनिधित्व करने आए हो लेकिन तुम तो हिंदू धर्म को बांट रहे हो”देश के टुकड़े टुकड़े करना चाहते हो’, मैं अछूतों को इसीई और मुसलमान बना दूंगा! लेकिन हिंदू धर्म को खंडित नहीं होने दूंगा| लेकिन इंग्लैंड के किंग जॉर्ज पंचम ने गांधी जी की आपत्ती की और अधिक ध्यान नहीं दिया और उन्होंने अंबेडकर की सभी शर्तें स्वीकार करते हुए कहा भारत के अछूतों को अलग निर्वाचन क्षेत्र के द्वारा आरक्षण दिया जाता है| गांधीजी किसी भी प्रकार से अछूत को अलग से आरक्षण देने पर तैयार नही थे| उन्होंने वायसरॉय को पत्र लिखा और कहा की दलित वर्ग को अलग से आरक्षण देकर आप देश के साथ बहुत अन्य करेंगे, इस तरह हमारा भारत टुकड़ों में बांट जाएगा मैंने किंग के निर्णय के विरुद्ध आमरण अंनशन शुरू कर दिया है| जब अछूतों के पृथक निर्वाचन क्षेत्र को लेकर गांधी जी ने आमरण अंनशन आरंभ किया तो पूरे देश में खलबली मैच गई| तब कांग्रेसी नेता इस समस्या के ऊपर गहराई से विचार करने लगे, सब ने ते किया की इस बात को लेकर मुंबई में एक विशाल सभा का आयोजन होना चाहिए| शीघ्र ही मुंबई में इस समस्या को लेकर एक बड़ी सभा आयोजित की गई| पंडित मदन मोहन मालवीय ने अंबेडकर से अपने मांग पत्र पर पुनर्विचार करने को कहा| अंबेडकर ने कहा मुझे आपकी हर बात स्वीकार है पर मैं दलित वर्ग को उनके अधिकार दिलाकर रहूंगा यदि गांधीजी यह अंनशन देश की स्वतंत्रता के लिए करते तो पूरा देश उनके साथ उपवास करता और मैं भी उनके साथ अंनशन पर बैठता| अधिकार के विरोध में इतना बड़ा अंनशन मेरी समझ मे नही आ राहा हें| में देश से छुआछूत को मिटाना चाहता हूं| मैं इसलिए यह कर रहा हूं गांधी जी उसे समय यरवडा जेल में थे| उन्होंने जय से अंबेडकर को पत्र लिखा ‘अंबेडकर देश को टूटने मत दो, हिंदू जाति को बच्चा लो, मेरा जीवन अब तुम्हारे हाथ में है’| अब जैसा उचित समझो वैसा करो|
गांधीजी के पुत्र देवदास अपनी मां कस्तूरबा के साथ डॉक्टर अंबेडकर को मनाने आए| कस्तूरबा गांधी बोली गांधी जी से समझौता करके उनका जीवन बच्चा लो| अंबेडकर अंत में डॉक्टर भीमराव अंबेडकर ने कुछ शर्तों के साथ गांधी जी से समझौता कर लिया इस समझौते को ‘पूना पेट’ के नाम से जाना जाता है| इस समझौते की पहले शर्त यह थी की विधानसभा में हर जनों के लिए राज्य की सिटे 78 से बढ़कर 148 कर दी जाए| दूसरी शर्त थी कानूनी ढंग से इन सीटों का निर्वाचन हो| तीसरी शर्त केंद्रीय विधानसभा में हरिजन के अगर सेना में बड़ा पद पाने तक उन्हे अनेक प्रकार के भेदभाव, तिरस्कार, अपमान, अपशब्द और कठोर वचन सहे, लेकिन अपने मुख से कभी कोई कटु वचन नहीं बोले, कभी गाली गलौज की भाषा का प्रयोग नहीं किया क्योंकि वे जानते थे की अपशब्दों से प्रतिकार करने से बात नहीं बनेगी| इससे अपने दलित समाज को सही न्याय नहीं दिलाया जा सकेगा और नाही प्रतिशोध के रास्ते पर चलकर उन्हें ऊपर उठाया जा सकेगा मुझे तो जड़ से भेदभाव और छुआछूत की समस्या नष्ट करनी है कोई ऐसा महान कार्य करके दिखलाना है| जिससे मेरा दलित समाज सदियों तक अपना सर ऊंचा करके चल सके समाज के अन्य वर्ग के लोगों के साथ कदम से कदम मिलकर चल सके और भारत का महान संविधान बनाकर उन्होंने यह अद्वितीय कार्य संभव कर दिखाए| 26 जनवरी सन 1950 को जब भीमराव अंबेडकर द्वारा बनाया गया संविधान देश में लागू हुआ तो दलित के चेहरे प्रसन्नता से खील उठे| अन्यय भेदभाव और तिरस्कार की मार झेल रहे वंचित वर्ग के चेहरों पर खुशियां आ गई| संविधान के रूप में उन्हें सक्षम और सम्मानपूर्ण जिंदगी जीने के कई अधिकार प्राप्त हो चुके थे| डॉक्टर अंबेडकर ने अपने जीवन और आचरण में हमेशा सहनशीलता के गुन का इस्तेमाल किया| उनके भाषण लेख और किताबें में तथा संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों में भी हमें उनकी सहनशीलता संयम, धीरज, गंभीरता के महान गुना के दर्शन होते हैं| गांधी जी की तरह अहिंसा को वे मानव का सबसे बड़ा धर्म या परम धर्म मानते थे| उन्होंने देखा की बौद्ध धर्म आज के समय में भी सबसे अधिक उदार और सहनशील है यह धर्म मानव के बीच किसी भी तरह का भेदभाव नहीं करता, किसी को छोटा या किसी को बड़ा नहीं समझता| चाहे मनुष्य किसी भी जाति या धर्म का हो बौद्ध धर्म सभी को लगता है| यही करण थे की बाबा साहब ने हिंदू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म ग्रहण करने का निर्णय लिया|डॉ भीमराव आंबेडकर जीवनी
14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने नागपुर में बौद्ध धर्म की दीक्षा ली| उनको दीक्षा देते समय बौद्ध भिक्षु चिंतामणि ने उनसे पूछा ‘तुम सत्य का पालनपुर कर सकोगे’ सत्य मेरी मां है; भीमराव ने उत्तर दिया भिक्षु चिंतामणि ने पूछा कटूवानी सेह सकोगे मेरे लिए| अब इस संसार में कुछ भी कटु नहीं रहा हाथ में भिक्षा पत्र लिए पीले वस्त्र पहने मूंधित शीश अंबेडकर ने उत्तर दिया इसके बाद भिक्षुक चिंतामणि ने उन्हें बौद्ध धर्म की दीक्षा दी| अब बाबा साहब देश के सामान्य व्यक्ति नेता और किसी के पैरों कर नहीं रहे बल्कि वे आत्मवत सर्व भूतेषु अर्थात सभी प्राणियों को अपने समाज देखने वाले आध्यात्मिक हो गए| बौद्ध धर्म की पुस्तकों का गहराई से अध्ययन मनन करके उन्होंने क्षमता वादी गहन दृष्टि प्राप्त की अब बाबा साहब के लिए कोई अपना या कोई आया नहीं रहा था| सब उनके अपने हो गए थे और वह सब के हो गए थे| बौद्ध धर्म स्वीकार कर लेने के बाद सभी के प्रति प्रेम क्षमा और दया का भाव उन्होंने अपने हृदय में धरण किया| डॉक्टर भीमराव अंबेडकर शिक्षा शक्ति के जीते जागते उदाहरण थे| शिक्षा उनके जीवन का सबसे अधिक महत्वपूर्ण और अभिन्न हिस्सा थी| शिक्षा ने इन्हें तार्किक शक्ति बौद्धिक ताकत और मन करने की योग्यता की| प्रधान की कोलंबिया यूनिवर्सिटी ने इन्हें ‘नंबर वन स्कॉलर इन डी वर्ल्ड’ की उपाधि प्रधान की| शिक्षा के बाल पर ही भीमराव ने समाज के दलित और निकले तबले को ऊपर उठाकर उन्हें समर्थ और योग्य बनाया| बाबा साहब की योग्यता राष्ट्र सेवा और समाज हिट में किया गए उनके महान कार्यों को देखते हुए उन्हें सर्वोच्च नागरिक सम्मान भारत रतन से विभूषित किया गया| दोस्तों बाबा साहब अंबेडकर जैसे विशेष महान प्रतिभाएं लोगों को न्याय और अधिकार दिलाने के लिए उन्हें संघर्ष और सच्चाई के पद पर चलने के लिए यही पृथ्वी पर जन्म लिया करती हैं| उन्हें आज भी भारतीय संविधान के निर्माता और दलित के मसीहा के रूप में याद किया जाता है| उनका संपूर्ण जीवन सच्चाई और न्याय के लिए संघर्ष कष्ट सहन सहनशीलता त्याग और राष्ट्र सेवा का जीता जगत उदाहरण है| देशवासियों की सेवा के लिए दलित गरीबों और वंचितों को अधिकार दिलाने के लिए उन्होंने दिन और रात कठोर परिश्रम किया| अपनी नींद और आराम का त्याग करके भारतीय संविधान के रूप में स्वतंत्र भारत के लोगों को एक ऐसा उपहार दिया जो आज हम सब भारतीयों के लिए भारतीय संस्कृति की नवीन अनमोल धरोहर बन गया है| धन्यवाद डॉ भीमराव आंबेडकर जीवनी