संत रविदास जी का संपूर्ण इतिहास/sant ravidas
संत रविदास जी का संपूर्ण इतिहास/sant ravidas का जन्म 1450 को काशी नगरी में हुआ था| इनके पिताजी का नाम था रघु और माता का नाम था घुर्बेरिया| यह जाति के चर्मकार थे और जूते बनाने का काम किया करते थे| रविदास जी की बचपन से ही भगवान की भक्ति और साधु संतों की सेवा में बड़ी भारी रुचि हो गई थी| थोड़ा बड़ा होने पर इन्होंने भी अपने माता-पिता का व्यवसाय अपना लिया और जूते बनाने का काम करने लग गए| कुछ समय के बाद इनका विवाह भी कर दिया गया और इनकी पत्नी का नाम था लोना देवी| स्वभाव से संत रविदास जी अत्यंत धार्मिक और परोपकारी प्रवृत्ति के थे| उन्हें साधु संतों की सहायता और सेवा करने में बड़ा आनंद आता था| वे अपने कार्य को जो भी कमाते थे उसे साधु संतों की सेवा पर खर्च कर देते थे और अक्सर साधु संतों को बिना मूल्य लिए ही जूते दान में बनाकर दिया करते थे|
संत रविदास जी का संपूर्ण इतिहास
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उनके इस स्वभाव से उनके के पिता बहुत नाराज रहते थे जब अपने पिता के बहुत समझाने पर भी वे नहीं माने तब इनके पिता ने इनको अपने घर से बाहर निकाल दिया| पिता से अलग होने के बाद संत रविदास जी पड़ोस में ही कुछ दूरी पर झोपड़ी बना कर के अपनी पत्नी लोना देवी के साथ रहने लगे और जूते बना कर के जो थोड़ी सी आमदनी होती थी उसी से अपने जीवन का निर्वाह करने लगे| रविदास जी दिन भर जूते भी बनाते और साथ-साथ भगवान का भजन भी किया करते थे| संत रविदास जी की पत्नी भी एक पतिव्रता थी और वह ऐसी स्त्री थी कि वह भी रविदास जी की हर कार्य में हाथ बटा थी और साथ में भगवान का भजन भी करती थी| दोनों बहुत ही अभाव में जीवन को गुजार रहे थे|अभाव ग्रस्त जीवन होने के बावजूद भी संत रविदास जी ने साधु संतों की सेवा करने में कोई कसर को नहीं छोड़ा था| वह अपनी सामर्थ्य के अनुसार संतों की सेवा अवश्य करते थे| इसीलिए इनके घर पर साधु और सन्यासियों के लोगों का जमावड़ा लगा रहता था| रविदास जी बड़ी निष्ठा से संतों की सेवा करते और उन्हें बड़े प्रेम से भगवान के भजन सुना कर के मुग्ध किया करते थे|संत रविदास जी का संपूर्ण इतिहास
एक दिन की बात है, संत रविदास जी की दरिद्रता को देख कर श्री भगवान को के बड़ा दुख हुआ और व एक साधु के रूप मे आ कर के संत रविदास के पास पहुंचे और साधु रूप में भगवान ने रविदास जी को पारस पत्थर देना चाहा| साधु ने पारस पत्थर का चमत्कार दिखाने के लिए उनकी लोहे से बनी चमड़ा काटने की रेती को पारस पत्थर से छू कर के सोने का बना दिया और पारस पत्थर को रख लेने का आग्रह करने लगे| परंतु रविदास जी ने कहा कि जिसके हृदय में भगवान की भक्ति का अमूल्य धन मौजूद है उसे पारस पत्थर की क्या जरूरत है| ऐसा कह कर के उन्होंने पारस पत्थर लेने से इंकार कर दिया| बहुत आग्रह करने पर भी जब रविदास जी पारस पत्थर को स्वीकार नहीं किया तब साधु रूपी श्री भगवान ने रविदास जी की झोपड़ी के छप्पर में उस पारस पत्थर को खोस करके चले गए और कहा कि जब भी आवश्यकता हो इस पारस पत्थर का प्रयोग कर लेना|संत रविदास जी का संपूर्ण इतिहास
कुछ महीनों के बाद उस साधु रूपी श्री भगवान जब पुनः रविदास जी के पास आए और उन्होंने देखा कि रविदास जी अभी भी अभाव पूर्ण जीवन को जी रहे हैं| साधु ने रविदास जी से पूछा कि आपने अभी तक उस पारस पत्थर का प्रयोग क्यों नहीं किया| क्या वह चोरी हो गया है, रविदास जी बोले कि मुझे पारस पत्थर की कोई जरूरत नहीं है| मुझे आपने कार्य में आमदनी जो होती है वह मेरे लिए पर्याप्त होती है इसलिए पारस पत्थर को मैंने हाथ भीत नहीं लगाया| वह जहां आप जैसे रख कर के गए थे, वहां उसी तरह से वह रखा हुआ है| साधु संत रविदास जी की कुटिया में गए और उन्होंने पारस पत्थर को वही रखा पाया यह देख कर के साधु रूपी भगवान संत रविदास जी की ऐसी भक्ती को देखकर बहोत प्रसन्न हुवे ओर रविदास जी को आशीर्वाद देकर के चले गए| कुछ दिन के बात संत रविदास जी की कुटिया में हर रोज पांच स्वर्ण मुद्राएं स्वत ही प्रकट होने लगी| पर संत रविदास जी उन मुद्राओं को गंगा नदी में विसर्जित कर देते थे, बहुत दिनों तक यही क्रम चलता रहा|
संत रविदास जी का संपूर्ण इतिहास
एक और अनोखी कहानी
एक दिन की बात है कि श्री भगवान ने संत रविदास जी को स्वप्न में दर्शन दिया और कहा कि “मैं जानता हूं तुम्हें धन का लोभ नहीं है’ परंतु मेरे द्वारा दी गई स्वर्ण मुद्राओं को ग्रहण कर लिया करो और इनका उपयोग संतों की सेवा के लिए किया करो” रविदास जी ने भगवान की आज्ञा को शिरोधार्य किया और स्वर्ण मुद्राओं का उपयोग साधु संतों की सेवा और अन्य धार्मिक कार्यों में करने लगे| इसके बाद इन्होंने भक्तों के ठहरने के लिए धर्मशाला का निर्माण करवा दिया और एक सुंदर मंदिर भी बनवाया| उस मंदिर की पूजा का अधिकार उन्होंने ब्राह्मणों को दे दिया| इसके बाद इनकी खूब प्रसिद्धि होने लगी दूर-दूर से लोग इनके दर्शन करने के लिए आने लगे|
एक बार की बात है कि नित्य प्रति राजा की तरफ से गंगा जी की पुष्प अर्पित करने के लिए जाया करता था तथा मार्ग में संत रविदास जी से भी मिलता था| एक दिन रविदास जी ने उस ब्राह्मण को दो पैसे दे कर के कहा कि “महाराज आप प्रतिदिन राजा की तरफ से गंगा जी को पुष्प अर्पित कर करने के लिए जाते हैं तो आज मेरी तरफ से यह दो पैसे गंगा जी को अर्पित कर देना और जो भी कुछ वह कहे सो आकर के मुझे बता देना”| ब्राह्मण उनसे दो पैसे लेकर के चला गया रोज की तरह ब्राह्मण ने पहले राजा की ओर से गंगा जी को पुष्प अर्पित किए और फिर रविदास जी के दो पैसे भी गंगा जी को अर्पित करने के लिए कहा “लो गंगा मैया यह दो पैसे संत रविदास जी ने भेजे हैं” पैसे चढ़ाते ही ब्राह्मण ने देखा कि गंगा जी से दो दिव्य हाथ प्रकट हो गए और दोनों पैसे लेकर के अदृश्य हो गए| यह दृश्य देख कर के ब्राह्मण आश्चर्यचकित रह गया कुछ ही क्षणों में वह हाथ फिर से प्रकट हुए और अबकी बार उन हाथों में एक सोने का बहुमूल्य कंगन था|संत रविदास जी का संपूर्ण इतिहास
जल में से आवाज आई कि यह कंगन जाकर के संत रविदास को दे देना ब्राह्मण कंगन लेकर रविदास जी की ओर जाने लगा मार्ग में उसने सोचा कि रविदास जी ने तो इस कंगन को देखा नहीं है तो फिर उन्हें यह क्यों दिया जाए| ऐसा विचार करके वह अपने घर की तरफ जाने लगा और रास्ते में में उसने वह कंगन एक सुनार को बेच दिया| दूसरे दिन जब पुनः रविदास जी से वह मिला तब उनसे कहा कि पैसे तो मैंने अर्पित कर दिए थे परंतु गंगा जी ने कुछ नहीं कहा| यह बात सुन कर के रविदास जी चुप हो गए अब उस कंगन को सुनार से किसी सेठ ने खरीद लिया, उस सेठ की पत्नी कंगन को पहन कर के रानी से मिलने गई रानी को वह कंगन बहुत पसंद आया तो सेठानी ने वह कंगन रानी को भेंट कर दिया फिर रानी ने वह कंगन राजा को दिखाया और उसी के जैसा एक कंगन बनवा देने का आग्रह किया राजा से|
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सभी प्रमुख सुनारों को बुला कर राजा ने वैसा ही एक और कंगन बनाने की आज्ञा दे दी| सभी सुनारों ने कहा कि महाराज ऐसा लगता है कि इस पर तो ईश्वर ने स्वयं कारीगरी की है इसके जैसा कंगन बनाना हमारे सामर्थ्य के बाहर है| अब राजा ने जब खोज कराई कि यह कंगन कहां से आया है तो खोज करने पर उस सुनार को बुलाया गया और पूछा कि तुम्हें यह कंगन कहां से मिला है तब सोनार ने उसी ब्राह्मण का नाम बता दिया अब उस ब्राह्मण को बुला कर के पूछा गया कि यह कंगन तुम्हें कहां से मिला| यह सुनकर ब्राह्मण बुरी तरह से घबरा गया जब राजा ने ब्राह्मण से पूछा क्या तुमने यह कंगन कहींन से चुराया है सच सच बताओ नहीं तो तुम्हें कठोर दंड दिया जाएगा| तब ब्राह्मण ने डरते डरते संत रविदास जी और गंगा मैया की पूरी घटना सुना दी फिर राजा उस ब्राह्मण को लेकर के संत रविदास जी के पास पहुंचे और उन्हें पूरी घटना के बारे में बता कर के प्रार्थना की कि कृपा करके ऐसा ही एक और कंगन हमको दिलवा दीजिए| तब संत रविदास जी ने कहा कि ब्राह्मण देवता को ऐसा नहीं करना चाहिए था| यह कहकर चमड़ा भिगोने वाली अपनी कठौती की तरफ देख कर के बोले कि “मन चंगा तो कठौती में गंगा” माता वैसा ही एक कंगन और दीजिए ऐसा कहते ही सबके सामने उस कठौती से वैसे ही कंगन के लिए एक दिव्य हाथ प्रकट हुआ और रविदास जी को वह कंगन दे दिया|संत रविदास जी का संपूर्ण इतिहास
संत रविदास की भक्ति का ऐसा चमत्कार देख कर के सब उसकी प्रशंसा करने लगे और राजा उस कंगन को लेकर के चला गया| इस घटना के बाद समाज में ब्राह्मणों की प्रतिष्ठा कम हो गई इसीलिए ब्राह्मण रविदास जी से ईर्ष्या करने लगे और उन्हें नीचा दिखाने का उपाय ढूंढने लगे| जब ब्राह्मणों ने काशी नरेश से जाकर के कहा कि हे राजन रविदास जी ने झूठे चमत्कार दिखा कर के सबको भ्रमित कर दिया है यदि वे सच्चे भक्त है तो उनकी भक्ति की परीक्षा ली जानी चाहिए| तब राजा ने निर्णय किया कि ब्राह्मण और रविदास जी बारी-बारी से प्रभु का आवाहन करेंगे और जिसके पुकारने पर मंदिर में विराजमान स्वयं भगवान की प्रतिमा करके जिसकी गोद में आ जाएगी वही सच्चा भक्त कहलाएगा| इसके बाद एक दिन निश्चित किया गया इस दिन नगर के सभी लोग या भक्ति की परीक्षा देखने के लिए एकत्रित हुए| सबसे पहले ब्राह्मण दिन के तीन पहर तक विधि पूर्वक वेद मंत्रों का जाप करते रहे परंतु कुछ परिणाम हासिल नहीं हुआ इसके बाद रविदास जी की जब बारी आई, रविदास जी ने विनम्रता पूर्वक भगवान से प्रार्थना की और कहा कि हे भगवान इस दास पर अनुग्रह कीजिए ऐसा कह कर के प्रेम पूर्वक एक भजन गाया और जैसे ही रविदास जी का भजन पूरा हुआ, भगवान की प्रतिमा सबके सामने अपने स्थान से उठ करर के संत रविदास जी की गोद में आकर के बैठ गई|
संत रविदास जी का संपूर्ण इतिहास
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इस प्रकार भगवान ने ना केवल सबके सामने अपने भक्त की लाज रख ली बल्कि भगवान ने अपने भक्त की प्रतिष्ठा को हजारों गुना बढ़ा दिया| इस घटना के बाद नगर के सभी लोग और काशी के नरेश संत रविदास जी की भक्ति के वशीभूत हो गए| दोस्तों बचपन से रविदास जी अपने गुरु पंडित सारदा नंद पाठशाला में पढ़ने के लिए गए परंतु कुछ जाति के लोगों द्वारा उन्हें वहां पढ़ने के लिए मना कर दिया गया, परंतु उनके विचारों को देख कर के पंडित शारदानंद को यह एहसास हुआ कि रविदास जी बहुत ही प्रतिभाशाली है और उन्होंने रविदास जी को पाठशाला में दाखिला दे दिया और उन्हें पढ़ाने लगे| रविदास जी बहुत ही अच्छे और बुद्धिमान बच्चे थे और पंडित शारदानंद से शिक्षा प्राप्त करने के साथ वो एक महान समाज सुधारक भी बने थे|
पंडित शारदानंद जी का पुत्र पाठशाला में उनका मित्र बन गया| एक दिन दोनों छुपा छुप्पी का खेल खेल रहे थे| खेल में दोनों एक-एक बार जीत भी चुके थे शाम हो जाने के कारण दोनों ने अगले दिन फिर खेलने का मन बनाया| अगले दिन पंडित शारदानंद का पुत्र खेलने नहीं आया जब बहुत देर तक वह नहीं आया तो रविदास जी उनके घर गए जब वे घर पहुंचे तो उन्हें पता चला कि उनके मित्र की मृत्यु हो गई है| सभी लोग उनके मित्र की लाश के चारों ओर बैठ कर के रो रहे थे तभी रविदास जी पंडित शारदानंद के पुत्र के शरीर के पास जाकर के बोले अभी सोने का समय नहीं है चलो छुपा छुप्पी का खेल खेले| दोस्तों यह शब्द सुनते ही वह बच्चा जीवित हो गया| गुरु रविदास जी को भगवान से मिली शक्तियों के कारण उनके शब्दों से वह बच्चा जीवित हो चुका था| सब कोई यह देख कर के अचंभे में पड़ चुका था कहते हैं|संत रविदास जी का संपूर्ण इतिहास
एक बार एक धनी सेठ ने उस पानी को पीने का नाटक करते हुए अपने पीछे फेंक दिया था उसके कपड़े में जब वह गिर गया जब वह सेठ अपने घर गया उसने उन कपड़ों को एक कुष्ठ रोगी को दान में दे दिया| जब उस कुष्ठ रोगी ने उस कपड़े को पहना तो वह बहुत ही जल्दी रोग से मुक्त हो गया| पर वह सेठ जी कुष्ठ रोग से पीड़ित हो गए और बहुत चिकित्सा करवाने पर भी वह ठीक नहीं हो सके अंत में वह रविदास जी के पास गए और गुरु से उन्होंने क्षमा मांगी| संत रविदास जी ने उस सेठ को क्षमा कर दिया और अपने आशीर्वाद से उस सेठ को पुनः स्वस्थ कर दिया| इस घटना के बाद ब्राह्मणों को भी रविदास जी पर पूर्ण विश्वास हो गया और कालांतर में रविदास जी ने अपनी देह को त्याग करके मोक्ष को प्राप्त किया और सदा के आवागमन से वे मुक्त हो गए|जय श्री कृष्णा राधे राधे संत रविदास जी का संपूर्ण इतिहास