गुरु गोविंद सिंह का इतिहास/guru govind singh

गुरु गोविंद सिंह का इतिहास/guru govind singh

गुरु गोविंद सिंह का इतिहास/guru govind singh इतिहास में न जाने कितने ही वीर योद्धाओं की गाथाओं से भरा है| कभी इतिहास के पन्नों ने हमें दर्द दिया, तो वहीं कई अनमोल रत्न विद दिए| इन रत्नों में से एक थे दशमेश गुरु गोविंद सिंह| जिनके एक हाथ में तलवार, तो एक हाथ में कलम थी| वह संत थे, वह सिपाही थे, कमजोरों की वह ढाल थे, दुष्टों के वह काल थे| आज आपको संपूर्ण पूर्व संत सिपाही की गाथा से रूबरू करवाते हैं| जिसने देश धर्म और मानवता के लिए अपना संपूर्ण वंश कुर्बान कर दिया|

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एक और अनोखी कहानी

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22 दिसंबर सन् 1662 यह वह दिन था जब गुरु तेग बहादुर और माता गुजरी के घर आज के पटना साहिब में जन्म हुआ गुरु गोविंद सिंह का| गुरु साहिब ने अपने बचपन के चार वर्ष पटना साहिब में ही बिताये| इस वक्त उनके पिता असम में धर्म प्रचार पर थे जब पिता लोटे तब सन 1670 में गुरु साहब अपने माता-पिता सहित पंजाब के चक्कर नान की अर्थार्थ आनंदपुर साहिब नामक स्थान पर पहुंचे| इस स्थान पर छह साल के गुरु गोविंद के शिक्षा का आरंभ हुआ था| संस्कृत के ज्ञानि बने, फारसी उनकी कलम पर, आई गुरु मुखी गुरु के मुख पर चाली, तलवार से अब गुरु की पहचान हुई|

इसी समय गुरु तेगबहादुर जी से कश्मीर से आए पंडितों की टोली ने निवेदन किया कि कश्मीर में हिंदुओं पर अत्याचार हैं| गुरु और हिंदुओं का कत्लेआम हो रहा है नवाबों का फरमान है कि अगर तुम्हारा कोई ऐसा महापुरुष हो जो हमारी तलवार कि आगे इस्लाम को नकार देने का साहस रखता हो तो उसे ले आओ| हम कश्मीर के हिंदुओं का धर्म परिवर्तन नहीं करवाएंगे और इस तरह गुरु तेगबहादुर जी ने कश्मीरी हिंदुओं और गायों की रक्षा के लिए अपना बलिदान दे दिया|

29 मार्च सन् 1676 बैसाखी का दिन था इस दिन दशमेश पिता श्री गुरु गोबिंद सिंह जी महाराज पंथ के दसवें गुरू घोषित की गई| एक दशक बनने के बजाय गुरु महाराज ने तलवार को धारण किया| उनके सानिध्य में हजारों लोगों ने तलवारों को अपना साथी बनाया, आनंद का धाम तलवारों की खनक से गूंजने लगा| अप्रेल 1685 में आनंदपुर के राजा की वजह से गुरु महाराज को आनंदपुर साहिब छोड़कर जाना पड़ा| गुरुजी अपने नाहक नामक नगर में पहुंचे, अगले तीन साल तक गुरुजी इसी नगर में रुके| इस स्थान पर गुरू की मुगलों के इच्छुक कई राज्यों से मित्रता हुई| युद्ध गुरूजी ने आपस में सभी राज्यों की सेनाओं को एक कर दिया|

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इन राज्यों से कहा कि यदि तुम सभी का शत्रु एक है तो तुम अलग क्यों हो हमले की प्रतीक्षा करने के बजाय तुम स्वयं प्रतिघात करो| गुरु जी के आदेश पर इस इलाके के मुगल थाने पर प्रहार किया गया| हजारों सिंह बीच युद्ध में कूद पड़े| सन 1683 में नादून की लड़ाई हुई| युद्ध गुरु जी के नेतृत्व में 12 राज्यों ने अली खान की सेनाओं को परास्त कर इस पूरे इलाके को आजाद करवा लिया| व्यास नदी के तट पर गुरु जी अपनी विशाल सेनाओं के साथ आठ दिनों तक रुके रहे| सन 1688 में आनंदपुर कि रानी ने गुरूजी को पूरा आनंदपुर आने की प्रार्थना की| गुरु साहिब अपने जत्थे सहित अपने-अपने आनंदपुर लौट आए|

अगले 20 वर्षों तक गुरु महाराज आनंदपुर साहिब में ही रुके| इन वर्षों में उन्होंने तनिक भी विश्राम नहीं किया| बल्कि युद्ध कला में महारत हासिल की| साथ ही अपने भक्तों को भी एक योद्धा बनाया, कमजोरों को बल मिला, निहत्थों का पुरुष जगह, अपने धर्म पर अडिग रहना, मृत्यु भी सामने आ जाए तो डरने के बजाय प्रहार करना ही धर्म का मार्ग बन गया| गुरु महाराज द्वारा सेना निर्माण के समाचार मुगलों तक पहुंचने लगे| औरंगजेव इस समय अखंड में मराठों से घिरा था| उसने आदेश जारी किया कि आनंदपुर में सिखों को बड़ी तादात में जमा होने से रोक दिया जाए| साथ ही इस इलाके के पहाड़ी राजाओं ने भी गुरु को खतरा माना| इसी के तहत लाहौर के मुगल सेना पति दिलावर खान ने अपने पुत्र हुसैन खान को एक विशाल सेना के साथ आनंदपुर भेजा|

मुगलों तथा पहाड़ी राज्यों की संयुक्त सेनाओं ने आनंदपुर साहिब पर हमला कर दिया| पूरे नगर की घेराबंदी हुई| परंतु कमजोरों के हाथों में अब भवानी थी| प्रतिघात के स्वरों में नव योद्धाओं ने मुगल सेना पर घमासान प्रहार किया| इसे युद्ध में न सिर्फ मुगल सेना की हार हुई बल्कि मुगल सेनापति हुसैन खान भी मारा गया| अब गुरु महाराज ने समग्र पंजाब में फैले सिखो को एक करने की योजना बनाई| एक ध्वज, एक पंथ, एक निशान सिखों की मजबूत सेना हो| खलसा के नाम से दुश्मन थर्रा जाए| सन 1699 वैशाखी का पावन दिन था| गुरु महाराज ने समग्र पंजाब में सिखों की महासभा का ऐलान करवाया| एक आदेश पर सिक्खों का विशाल जत्था गुरु के चरणों में हाजिर हुआ| इस दिन खालसा सेना का निर्माण हुआ|

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सतगुरु प्रथम खालसा सेनापति बने के सकंगा, कड़ा, कृपाण सिंह की पहचान बन गया| तलवारों की खनक के बीच 80 हजार की सेना के सामने गुरु ने दहाड़ते हुए कहा ,’वाहेगुरु दा खालसा वाहेगुरु दी फतेह,’ कि निस्संदेह यह तिलक और जनेऊ की रक्षा में उस समय के सिक्कों की तलवार सदा खुली रहती थी| औरंगजेब की लाख कोशिशों के बावजूद गुरु महाराज उसकी अधीनता स्वीकार नहीं कर रहे थे| तीन बार आनंदपुर साहिब की घेराबंदी की गई परंतु मुग़ल गुरु साहब को पकडने करने में नाकाम रहे| मई सन 1704 में मुगलों ने दस लाख की विशाल सेना को संगठित किया| और आनंदपुर साहिब को अगले छह महीनों तक घेरे रखा| मुगलों का मानना था कि जब आनंदपुर साहिब में राशन पानी खत्म होगा तब सतगुरु स्वता ही मुगलों की अधीनता स्वीकार कर लेंगे| परंतु इसके विपरीत गुरु महाराज रात्रि में अपने जत्थे सहित आनंदपुर साहिब को छोड़कर निकल गए| जब मुगलों को इसकी भनक लगी तो वे गुरु महाराज के पीछे लग गये|गुरु गोविंद सिंह का इतिहास/guru govind singh

इस भयंकर उथल-पुथल में गुरु महाराज का परिवार उनसे बिछड़ गया| गुरु महाराज की माता और दो छोटे साहिबजादे पीछे छूट गए| साथ ही हजारों सिख मुगलों से लड़ते हुए वीरगति पाए गए| अब मात्र गुरु महाराज सहित ४३ सिख जत्थे में बच्चे थे जो आगे बढ़ते हुए चमकोर नामक गांव में पहुंचे| इस नगर में गुरूजी ने एक ऊंची हवेली में अपनी सेना को तैनात कर दिया और गुरु महाराज ने स्वयं कच्ची गढ़ी हवेली के दो गज केसरी से युद्ध का मोर्चा संभाला| मात्र 40 सिंधु का मुकाबला 10 लाख की विशाल सेना से होना था|

सुबह होते ही मुगल इस हवेली पर टूट पड़े| भयानक युद्ध सुबह से संध्या तक जारी रहा| इस युद्ध में गुरु महाराज के दो बड़े साहिबजादों सहित अंतिम 40 सिख भी वीरगति पाए गए| परंतु सिखों ने सदगुरू को सुरक्षित स्थान पर पहुंचा कर ही दम लिया| गुरु महाराज के दो अन्य छोटे साहिबजादे जो आनंदपुर छोड़ते समय उनसे बिछड़ गए थे उनको मुगलों द्वारा पकड़ लिया गया और 27 दिसंबर सन् 1704 को सतगुरु के नन्हे पुत्र जोरावरसिंह तथा फतेहसिंह जी को औरंगजेब द्वारा दीवारों में चुनवा दिया गया| जब यह हाल गुरु जी को पता चला तो उन्होंने औरंगजेब को एक जफरनामा अर्थार्थ विजय का पत्र लिखा|

8 मेई 1704 की सुबह गुरू महाराज दक्षिण की तरफ निकले इस समय औरंगजेब डक्कन के वीर मराठा से घिरा हुआ था| तब गुरु महाराज को समाचार मिले कि औरंगजेब मर गया| 7 अक्टूबर सन् 1707 में गुरु महाराज नांदेड़ साहिब में दिव्य ज्योति में लीन हो गये| अंत समय में आपने सिखों को गुरु ग्रंथ साहिब को ही अपना गुरु मानने को कहा| तथा स्वयं दशमेश गुरु ने भी अंतिम बार गुरु ग्रंथ साहिब को माथे से लगाया| गुरुजी के बाद बाबा बंदा सिंह बहादुर ने सरहद पर आक्रमण किया और अत्याचारों की इट से इट बजा दि| गुरु पिता की हत्या के प्रतिशोध में बंदा बैरागी ने पंजाब की मुग़ल सत्ता को चकनाचूर कर दिया और गुरु महाराज के नाम से एक नई हुकूमत कायम कर दी| निसंदेह सिख खालसा सेना ने गुरु महाराज का सपना पूर्ण किया|गुरु गोविंद सिंह का इतिहास/guru govind singh

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